बदल रहा आज मानव स्वरूप ,
छल,कपट, प्रपंच सब करते हैं।
अपने इन कर्मों को छुपाने को,
हर पल नकाब बदलते हैं।।
कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं,
केवल स्वार्थ में जीते मरते हैं।
नैतिकता और संस्कार सब छोड़े,
हर पल नकाब बदलते हैं।।
सब को मालूम है इसका अंत ,
जग को ठगकर बनते हैं संत।
दुनिया को भरम में रखने को,
हर पल नकाब बदलते हैं।।
जो सच है सामने आ जायेगा,
जो बोया है वही काटा जायेगा।
सारे जग को मूर्ख समझते हैं,
हर पल नकाब बदलते हैं।।
वह ऊपर बैठा सब देख रहा,
तेरे कर्म काज को तौल रहा।
इस तरह सुखी न रह पाया ,
हर पल नकाब बदलते हैं।।
अभी भी समय है संभल जा ,
इन कर्मों पर तू लगाम लगा।
तज दे ये तेरे सब गोरखधंधे,
हर पल नकाब बदलते हैं।।